रविवार, 26 जनवरी 2014

आत्मा की दिव्य चेतना

ईश्वर से ज्यादा क्या अहंम और स्वार्थ है.....    
 ईश्वर का यदि जीवन में किसी प्रिय की तरह प्रत्येक साँस के साथ पल प्रति पल अहसास तो हो,किन्तु अहंम और स्वार्थ करीबी रिश्तेदार की तरह ,हर समय सिर्फ बाधा ही उत्पन्न करते हो ,और हम उनके हाथ की कठपुतली ही बनकर रह जाते हैं , अपने (स्वार्थी रिश्तेदार)के सहारे एक कदम भी चलने से मजबूर हो जाए तो एक  दिखावटी भक्त की तरह ही जीवन भर रहें आते हैं ,अपने जीवनपथ से अगर काँटे अलग नहीं कर पाते तो हितो-उपदेश देने का भी हमारा  कोई धर्माधिकार नहीं रह जाता हैं सदज्ञान इसी को कहते हैं,ईश्वर हैं और अपने भक्तो के आभाचक्र की रक्षा करते रहते हैं ,उनका (भक्तों )का जीवन ईश्वर के सहारे चलता रहता हैं ,ईश्वर सच्चे मित्र की तरह कल्याण की आशा करते हैं ,सच्चे भक्त तो ईश्वर में ही लवलीन रहते हैं ,ईश्वर की आभा का आभास और  दर्शन तथागत और शंकराचार्य जी को घने वन में बोधि वृक्ष के निचे हुआ ,संसार के सभी ज्योतिलिंग बोधिवृक्ष के साये में ही स्वयं प्रगट हुए ,,ईश्वर को तो प्रकृति से ही लगाव हैं रजोगुणी राजसी व्यवस्था ने उन पवित्र स्थानों मंदिर निर्मित कर अपना मान सम्मान पाने की भरपूर चेष्टा की ईश्वर तो ममतामयी ,करुणामयी ,दयालु हैं ,कुपात्र भी भोले भगवान् से वरदान पा जाते हैं ,ईश्वर हैं,शिव और शक्ति रूप में मेरे कहने का आशय यही हैं कि उनमें स्त्री +पुरुष दोनों की आभा विराजमान हैं,देवी को पत्ता हैं कि उनके भगवान के मन में क्या चल रहा हैं ,और भगवन भी भगवती की भावना को भलीभांति समझते हैं दो शरीर होकर भी आत्मा से एक ही रहते हैं ,आज भी कुछ समय पूर्व अद्भुत देवी-शक्ति भारत में प्रगट हुई हैं ,शारदादेवी +रामकृष्ण परमहंस ,श्रीराम शर्मा +भगवती देवी ,इन के दर्शन मात्र से सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं ,मैं तो यही कहना चाहता हूँ कि सभी धर्म का सम्मान करना चहिए ,इनका निर्माण परम पवित्र आत्मा ने किया हैं ,राजसी और तामसी प्रवृति के लोग   अपनी अपनी समझ से स्वार्थपूर्ति के लिए धर्म की दिशा बदलने की हमेशा बलवती चेष्टा किया करते हैं, जो भी हो हमें पवित्र नदी की तरह मर्यादा में रहना चाहिए ,सत्य,अहिंसा,करुणा प्रेम,ममता के सामने सभी हथियार कमजोर साबित होगेँ,,,कभी भी एक कठिन समय हमारे दरवाजे पर दस्तक दें सकता हैं,ॐ श्रीराधेकृष्ण बोले ,राधेराधे,,,

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